Saturday, January 2, 2010

छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे…

♦ कैफ़ी आज़मी की नज़्म
राम बनवास से जब लौट के घर में आये
याद जंगल बहुत आया जो नगर में आये
रक्से दीवानगी आंगन में जो देखा होगा
छह दिसंबर को श्री राम ने सोचा होगा
इतने दीवाने कहां से मेरे घर में आये?
जगमगाते थे जहां राम के क़दमों के निशां
प्यार की कहकशां लेती थी अंगड़ाई जहां
मोड़ नफरत के उसी राहगुज़र में आये
धरम क्या उनका है, क्या जात है, यह जानता कौन?
घर न जलता तो उन्हें रात में पहचानता कौन
घर जलाने को मेरा, लोग जो घर में आये
शाकाहारी है मेरे दोस्त, तुम्हारा खंजर
तुमने बाबर की तरफ फेंके थे सारे पत्थर
है मेरे सर की खता ज़ख्म जो सर में आये
पांव सरयू में अभी राम ने धोये भी न थे
के नज़र आये वहां खून के गहरे धब्बे
पांव धोये बिना सरयू के किनारे से उठे
राम यह कहते हुए अपने द्वारे से उठे
राजधानी की फ़िज़ा आयी नहीं रास मुझे
छह दिसंबर को मिला दूसरा बनवास मुझे।

No comments:

Post a Comment